फैजाबाद की सरजमीं से दो ऐसी शख्शियतें उभरकर सामने आईं, जिनकी चमक आज भी मंद नहीं पड़ी है. उनमें से एक हकीकत थी और दूसरी अफसाना. लोगों ने अफसाने को हक़ीकत समझ लिया और हक़ीक़त को अफसाना. मिर्ज़ा हादी रुसवा ने अपने उपन्यास में उमराव जान अदा एक ऐसा जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया, कि इसके छपने के बाद ही उमराव जान से मुलाकात करने के लिए लखनऊ में लोगों की भीड़ लगने लगी. लेकिन उमराव हक़ीकत नहीं थीं. उमराव के ऊपर के ऊपर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है और?आगे भी लिखा जाता रहेगा लेकिन हम यहां उस दूसरी सख्शियत की बात करेंगे जिनके जीवन से ऐसी-ऐसी बातें जुड़ी हैं जिन्हें सुनकर लोगों को लगने लगा कि वह अफसाना हैं ये शख्शियत थी गायिका बेगम?अख्तर की.
बेगम अख्तर ने अपनी गायकी से दादरा-ठुमरी को एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचा दिया कि इंतकाल के चार दशक बाद भी वह हिंदुस्तान में संगीत की इन विधाओं का पर्याय बनी हुई हैं. उन्होंने हिंदुस्तान में गज़ल गायकी को एक अलग पहचान दी. दीवाना बनाना है तो मुझे दीवाना बना दे, वरना कहीं किस्मत तुम्हें मुझसा न बना दे, वो जो हममे तुममे करार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो,जाने क्यूं तेरे नाम पे आज रोना आया, यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी, आज कुछ बात थी जो शाम पे रोना आया जैसी गज़लें आज भी सुनने वालों के कानों में शहद घोलती हैं. हमरी अटरिया पे आओ न बालम, ओ राजाजी सौतन के लंबे लंबे बाल, जैसी कई बेहतरीन नज़मों के बल पर उन्होंने दुनियाभर के लोगों का अपना मुरीद बना लिया था.
अख्तरी का जन्म 1914 में फैैजाबाद में हुआ था. मां मुस्तरी बाई अदा और गायन दोनों में माहिर थीं. अख्तरी को मुख्य रूप से अता मुहम्मद खां और अब्दुल वाहिद खां से संगीत की तालीम हासिल हुई. उनकी जवानी कलकत्ता में गुजरी जहां, थियेटर में काम करने के अलावा उन्होंने कुछ फिल्मों में भी काम किया. इसी बीच मेगाफोन रिक़ॉर्डिंग कंपनी की वजह से अख्तरी बाई का नाम देश भर में मशहूर होता जा रहा था. लेकिन उनका मन फिल्मों में नहीं लगा. लंबे अरसे बाद सत्यजीत रे के कहने पर उन्होंने फिल्म जलसाघर में शास्त्रीय संगीत गायिका की भूमिका अदा की. 1940 में वह अपनी मां के साथ कलकत्ते से लखनऊ लौट आईं और लखनऊ के चीना बाज़ार मोहल्ले में रहना शुरू किया. इसके बाद उनके पास दूर-दूर की रियासतों से गाने बजाने के न्योते आने लगे.
उनकी शख्शियत में कोई भी चीज फीकी नहीं रही. दुःख, दर्द, मुहब्बत, खुशी, हंसी, हर चीज उनकी जिंदगी में बहुत रंग लेके आती थी. वह शौकीन मिज़ाज थीं, उन्हें अच्छे परफ्यूम और अच्छा खाने-पीने का शौक था. वह बड़ी खुशमिज़ाज, सबके साथ हंसी खुशी से बात करने वाली व्यक्ति थीं. उनकी शख्शियत ऐसी थी कि वह सबसे मोहब्बत करती थीं, रामपुर के नवाब उनके चाहने वालों में से एक?थे. वह एक बार उनके चीना बाजार के घर पर ही उनकी गज़लें सुनने पहुंचे. नवाब साहब ने उन्हें एक सतलड़ा दिया था जिसकी आखिरी लड़ी उनके पैरों तक आती थी, नवाब साहब कहा करते थे कि उस सतलड़े में लगे आखिरी हीरे से ज्यादा चमक अख्तरी की मुस्कुराहट में थी. नवाब का लगाव अपनी ओर बढ़ता देख उनसे बचने के लिए अख्तरी ने अपनी नज़रे इश्तियाक अहमद अब्बासी की ओर कीं, इश्तियाक साहब काकोरी के ताल्लुकदार थे. वह लंदन में पढ़े थे और बार एट लॉ थे. दूसर रईसों की तरह उन्हें भी गाने का शौक था. वह ओल्ड शेवरले में बैठकर कोर्ट जाते थे. उनकी वकालत के तो कोई चर्चे मशहूर नहीं थे न ही उनका घर वकालत के बल पर चलता था. उनकी शख्शियत के बहुत से रंग थे, वह बहुत ही चार्मिंग और मनमोहक इंसान थे. वह बच्चों के साथ बच्चों में मिल जाते थे, बड़ों के साथ बड़े हो जाते थे.
बेग़म सइदा रज़ा ने अख्तरी के निकाह में उनकी मदद की थी, वह उस दौरान ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ में काम करती थीं. वह इश्तियाक साहब की करीबी थीं. इसलिए अख्तरी एक दिन उनसे मिलने एआईआर लखनऊ पहुंच गईं. उन्होंने उनसे बड़ी ही तहजीब से कहा मैं आपसे कुछ बात करना चाहती हूं. आप इश्तियाक अहमद अब्बासी को जानती हो, तो उन्होंने कहा जी हां वह बड़े ही नेक इंसान हैं और हमारे मित्र हैं. उन्होंने उनसे पहली मुलाकात में आगे-पीछे कोई भूमिका बांधे बगैर सीधे अपनी शादी की बात करवाने के लिए कहा. जिस तरह अख्तरी ने उनसे कहा था वैसे ही सइदा रज़ा ने भी उसे लिया, उन्होंने उनसे कहा कि मैं कोशिश कर सकती हूं लेकिन वादा नहीं कर सकती. बहरहाल ऐसे ही कुछ वक्तगुज़र गया. एक हफ्ते बाद बेगम अख्तर फिर से आईं, इस दौरान सइदा ने इश्तियाक को अपने घर बुलाया, और जिस तरह अख्तरी की बात इश्तियाक भाई से कह दी. उस दिन वह बात आई गई हो गई, लेकिन कुछ समय बाद सइदा को मालूम हुआ कि दोनों मिल रहे थे. और दोनों एक दूसरे से वाकिफ थे. अख्तरी चाहती थीं कि उन्हें समाज का कोई मजबूत सहारा मिल जाए, इस तरह के हालात बने और शादी तक पहुंच गई. सइदा, उनके शौहर, अख्तरी, इश्तियाक, मौलवी साहब और नौकर गुलाब को मिलाकर कुल छह लोगों की उपस्थिति में निकाह मुकम्मल हुआ.
बेगम अख्तर के लिए निकाहनामे के साथ पर्दे की जकड़ने आईं. शादी के बाद अख्तरी, बेगम अख्तर हो गईं और उनके लिए गाना हराम. इसके बाद उनकी मां का देहांत हो गया, बेगम अख्तर बीमारी और डिप्रेशन का शिकार हो गईं. इनको इतनी ज्यादा तकलीफ थी, कि वह बिस्तर पर लेट भी नहीं पाती थीं. पेट में दर्द की वजह से उनकी तबीयत और ज्यादा खराब हो जाती थी, उस जमाने में उन्हें दवा लेने की लत पड़ गई थी, वह मोर्फिन के इंजेक्शन लेती थीं लेकिन अचानक से एक दिन उन्होंने इंजेक्शन लेना बंद कर दिया. उन्होंने निकाह के बाद गाने को बहुत मिस किया साथ ही शराब पीनी शुरू कर दी. कुछ समय बाद बेगम अख्तर लोगों से मिलने जुलने भी लगीं थीं, ये सब इश्तियाक साहब के लिए काबिल-ए-एतराज़ था लेकिन उन्होंने इसे बर्दाश्त किया. बाद में उन्होंने उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उन्हें लखनऊ से बाहर गाने की इज़ाजत दे दी. सात साल लंबी खामोशी के बाद बेगम अख्तर एआईआर लखनऊ के जरिये फिर गाने लगीं. पिंजरे में कैद इस परिंदे को जैसे परवाज की ताकत मिल गई. अब उन्हें रोकने वाला कौन था?
आम तौर पर लोगों को छोटी सी बात बुरी लगती है फिर सब कुछ ठीक हो जाता है, लेकिन बेगम अख्तर को छोटी-छोटी बातों से भी बड़ी तक़लीफ होती थी. यदि कहीं थोड़ी सी बदगुमानी या मिस अंडर स्टैंडिंग हो जाये, तो ऐसा लगता कि हक़ीकत में उन्हें किसी ने खंजर मारा हो. वह खंजर उनके सीने में तब चुभा रहता था जब तक कि वह उसका पूरा मज़ा न ले लें. वह इश्क के बगैर भी नहीं रह सकती थीं, वह हमेशा उसकी तलाश में रहती थीं. वो चाहती थीं कि वो इश्क करें और उसकी तकलीफ में डूबी रहें, तब जिंदगी का पूरा फ्लेवर उन तक पहुंचता था. वह कान की बेहद कच्ची थीं, वह धड्डले से झूठ बोलती थीं. लेकिन वह दिल की बड़ी साफ थीं, उन्होंने लोगों की हर तरह से मदद की. वह जिस महफिल में जाती थीं उस महफिल का माहौल खुद-ब-खुद खुशगवार हो जाता था. इस वजह से उनके सच और झूठ सबको माफ कर दिया जाता था.
वह बहुत छोटी सी जमीन में नज़ाकत के साथ बड़ी बात कर गईं. संगीत से ताललुक रखने वाले लोग इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. उस जमाने में ख्याल गाने वाले ठुमरी-दादरी गाते ही नहीं थे. ऐसा करने को वह अपनी तौहीन समझते थे. बेगम अख्तर उसे उठाकर कॉन्सर्ट लेवल पर ले आईं, उनको ठूमरी दादरा गाने की कुदरती देन थी. वह अपने समकालिक गायिकाओं सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई से हटकर थीं, हालांकि ठुमरी-दादरा उनकी भी ज़मीन थी. लेकिन उनका म्यूजिकल एटीट्यूड उन्हें सबसे अलग करता था. इस एटीट्यूड में उतनी ही नज़ाकत भी थी. इसका सीधा ताल्लुक उनके व्यक्तित्व से था.
उनके अपने दौर के शायरों के साथ भी बड़े अच्छे रिश्ते थे. बहज़ाद जैसे शायर ने केवल बेग़म अख्तर के लिए ही शेर लिखे, वह उनके दरबारी शायर जैसे थे. वह उन्हीं के साथ चलते थे, ऐसा लगता है कि दीवाना बनाना है जैसी गज़ल उनके लिए ही लिखी गई हो. शकील की बहुत सी ग़ज़लें उन्होंने गाईं हैं लेकिन उनके साथ उनके संबंध बहुत करीबी नहीं थे. ज़िगर मुरादाबादी से जुड़े किस्से वो खुद ही सुनाया करती थीं. ़कैफी आज़मी से उनके अच्छे संबंध थे. एक दूसरे के साथ हंसी मज़ाक करते रहते थे, दोनों के बीच फ्लर्ट भी होता था. फिराक़ गोरखपुरी, के साथ भी उनके अच्छे रिश्ते थे. बहुुत से गुमनाम शायरों की पहचान बेग़म अख्तर की वजह से ही बनी. उन्हें इस बात का कतई गुरूर नहीं था, अगर था भी तो वह कभी दिखाई नहीं देता था. उस दौर में बेगम अख्तर किसी की गज़ल गा दें तो उसके लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती थी.
आखिरी दिनों में वो शराब और अकेले पन में खो गईं. उन्हें खुुद नहीं मालूम था कि क्या चाहिए उन्हें, उन्हें जो चाहिए था वह उन्हें मिल चुका था. पैसा, शोहरत, दोस्त सब कुछ था. 30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद में उनका दिल का दौरा पड़ने की वजह से देहांत हो गया. उन्हें लखनऊ के पसंद बाग़ में सपुुर्द-ए -ख़ाक किया गया. ऐसा लगता है कि वह आज भी अपने चाहने वालों से पूछ रही हैं कि मुझे याद है सब ज़रा-ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो…
बेगम अख्तर के जीवन पर आधारित डॉक्युमेंट्री हाय अख्तरी बनाने के अनुभव पर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक एस कालीदास की चौथी दुनिया संवाददाता नवीन चौहान से हुई बातचीत के मुख्य अंश…
बेगम अख्तर पर डॉक्यूमेंट्री बनाने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
इसकी शुरूआत एक जर्नलिस्टिक असांइनमेंट के रूप में हुई थी. उनकी 20 वीं पुण्यतिथि का मौका था, मल्लिका पुखराज पाकिस्तान से आईं थीं. सबसे पहले मैंने मल्लिका पुखराज से उनके बारे में बातें करनी शुरू की, इस दौरान मुझे लगा कि बेगम अख्तर की कहानी पर और इंटरव्यू किए जायें. शीला धर हमारी बड़ी शुभचिंतक थीं, मुझे बहुत प्यार करती थीं, मैंने उनसे मुलाकात कीं, फिर सईदा रज़ा से, शांती हीरानंद से मुलाकात की, उनके तबला वादक मुन्ने खां के साथ बेगम अख्तर के घर में शूटिंग की. इस पूरी कवायद में एक साल लगा. हालांकि शुरूआत डॉक्यूमेंट्री बनाने के इरादे से नहीं की थी, लेकिन जो कहानी तीन मिनट की रिपोर्ट से शुरू हुई उसने एक साल के अंदर डॉक्यूमेंट्री का रूप ले लिया. इसे बनाने में परेशानियां तो नहीं आईं, लेकिन डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मुझे लगा कि इससे पहले ऐसी कोई डॉक्यूमेंट्री क्यों नहीं बनी, बननी चाहिए थी, जब मैंने शुरूआत की उस समय तक उनसे जुड़े काफी लोग गुजर चुके थे, बहुत सारी चीजें बिखर चुकी थीं, मैं तो अपने आपको धन्य मानता हूं कि मैंने इतना कर लिया नहीं तो इतना भी नहीं बचता. जो लोग बेगम अख्तर को उनकी जिंदगी में व्यक्तिगत तौर पर जानते थे वे लोग भी जाते रहे, ऐसे में मुझे कुछ लोगों से अच्छे इंटरव्यू और कुछ अच्छी जानकारियां मिलीं.
रामपुर के नवाब से बेगम अख्तर के प्रेम प्रसंग के बारे में डॉक्योमेंट्री में विस्तार से बातचीत नहीं हो सकी, इसकी क्या वजह है?
जी हां, उस दौर में डॉक्योमेंट्री में जो कहा गया है वह ही ज्यादा था, मुझे लग रहा था कि कोई मुझ पर कानूनी कार्रवाई न कर दे. मेरी नवाब साहब के परिवार वालों से जान-पहचान थी, लेकिन मैं उनसे नवाब साहब की एक भी तस्वीर हासिल नहीं कर सका. बड़ी मुश्किल से मुझे उनकी एक तस्वीर मिल पाई. नवाब साहब बेगम अख्तर के साथ से मुतआ (कॉन्ट्रेक्ट मैरिज) करना चाहते थे. इसके लिए वह तैयार नहीं थीं. बेगम रामपुर ने कर्नल जैदी से कहा कि मेरे मियां का पीछा इस औरत से छुड़ाओ. उस दौरान अख्तरी रामपुर में थीं. उन्हें रामपुर से अगवा कर लखनऊ लाया गया. गाड़ी पर काला पर्दा लगाकर कर्नल जैदी खुद ड्राइव करके बेगम अख्तर को रामपुर स्टेट की सीमा के बाहर तक छोड़ आये. रामपुर स्टेट के बाहर अंग्रेजों का राज था. इस तरह की बहुत सारी बातें थीं जो इस डॉक्यूमेंट्री में फिट नहीं बैठती थीं.
शायरों के अलावा म्यूजीशियन्स के साथ उनके कैसे संबंध थे?
उनके शायरों के साथ बहुत याराना रहता था, रसूलन बाई उनके साथ रहीं थीं, और वहीद खां साहब तकरीबन एक साल तक उनके पास रहे. मेरा गिला यही है कि मैं उस जमाने के टेप संभाल कर नहीं रख पाया. उसे उसी कंपनी में छोड़ कर आ गया. वह जमाना डिजिटल नहीं था. बड़े बड़े टेप हुआ करते थे, मैनें शूट तो बहुत किया था, अगर आज वो होते तो एक घंटे से ज्यादा की डॉक्योमेंट्री बन जाती.
सरकार ने उनकी विरासत को संभालने की कोशिश नहीं की, पिछले साल फैज़ाबाद का उनका मकान भी बिक गया. इस पर आपकी क्या राय है?
जी हां, सरकार ने बिलकुल कोशिश नहीं की, लखनऊ का उनका मकान अभी भी है. सलीम किदवई और शांति हीरानंद ने सरकार से भी और लखनऊ के अमीर लोगों से भी मिन्नतें कीं कि बेगम?अखतर की विरासत को बचाया जाए. उनके मकान में अभी भी कोई बंगाली परिवार रहता है, मौका मिलेगा तो वे भी उस मकान को एक-दो करोड़ में बेच देंगे. सरकार ने पिछले साल उनकी याद में सिक्का जारी किया. जो भी काम कर रही है केंद्र सरकार ही कर रही है, उत्तर प्रदेश सरकार ने तो कोई कोशिश नहीं की. एक तरफ तो मुलायम सिंह और उनके बेटे अखिलेश कहते हैं कि हम इस्लामिक कल्चर के हित में काम कर रहे हैं लेकिन बेगम अख्तर के मामले में उन्होंने कुछ भी नहीं किया. उत्तर प्रदेश के सियासतदानों और नौकरशाहों की अपनी विरासत के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है.
विरासत को संभालने के लिहाज से क्या यह मुश्किल दौर है?
कोई मुश्किल नहीं है लोगों ने इसे मुश्किल बना दिया है. हम विरासत को संजोने के लिए बहुत थोड़े से पैसों की मांग कर रहे हैं. यूपी सरकार के लिए एक-डेढ़ करोड़ रुपये खर्च करना कोई बड़ा काम नहीं है, उत्तर प्रदेश सरकार बेगम अख्तर की याद में एक फेस्टिवल आयोजित नहीं कर सकी यह खेद का विषय है.एक तरफ जन्मदिन पर सरकार लाखों खर्च कर रही है लेकिन विरासत को संजोने के नाम पर उनका खजाना खाली है. जो हो रहा है केंद्र सरकार की पहल से हो रहा है, और हम उनकी याद में एक जलसा आयोजित करने वाले हैं.
जब बेगम अख्तर की धरोहरों का यह हाल है तो उनके समकक्ष रहीं सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई जैसे लोगों की विरासत का क्या हुआ?
ये दोनों भी बहुत बड़ी गवइया थीं, रसूलन बाई की कोई औलाद नहीं थी, न ही उन्होंने कोई शागिर्द बनाया. इसलिए उन्हें आज कोई पूछने वाला नहीं है. सिद्धेश्वरी देवी की बेटियां हैं वह जरूर उनकी याद में थोड़े-बहुत कार्यक्रम कराती हैं. सरकार और समाज की ओर से भी कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं.
आज ठुमरी-दादरा को कौन से कलाकार आगे लेकर चल रहे हैं.
कई हैं, किसी विशेष का नाम नहीं ले सकता, सभी अच्छा कर रहे हैं. पिछले 10-15 सालों में कई कलाकार आए हैं उत्तर प्रदेश में भी हैं, कोलकाता में भी हैं, मुश्किल की बात यह है ठुमरी-दादरा लोगों की रोजमर्रा की भाषा होती थी, वह भाषा गावों की भाषा होती थी, अब उस भाषा का इस्तेमाल नहीं हो रहा है लोग सीख के गा रहे हैं, लेकिन वो क्या गा रहे हैं उनमें उसकी समझ नहीं है. उसका वजन समझने के लिए वह भाषा ही नहीं रहेगी तो उसे आगे लेकर कौन चलेगा. इसके लिए जो सांस्कृतिक वातावरण था वह जाता जा रहा है, खास तौर पर भाषा के लेवल पर. अवधी जैसी भाषा खोती जा रही है. औसतन खड़ी बोली वाली हिंदी का उपयोग अब सभी करते हैं. कई बोलियां थीं उनमें कवितायें लिखी नहीं जाएंगी और ग़जल नहीं लिखी जायेंगी तो इन्हें बचाना मुश्किल हो जाएगा. इसका सीधा असर दादरा और ठुमरी पर पड़ेगा.
Leave a Reply