मध्य प्रदेश का चंबल का इलाका एक समय डकैतों के लिए जाना जाता था, चंबल का नाम लेते ही वहां के बीहड़ और डकैतों की कहानियां हर किसी के जेहन में उभर आती थीं. लेकिन आज चंबल के बीहड़ में गोलियों की आवाज नहीं, किसानों की आत्महत्या के कारण पीड़ित परिवारों से रुदन के स्वर सुनाई पड़ते हैं. अत्याचार के खिलाफ बंदूक उठाकर बीहड़ में कूदने वाला किसान आज विवश होकर आत्महत्या का रास्ता चुन रहा है. सरकारों की उपेक्षा और अमानवीयता के कारण अब किसानों का अपने पैरों पर उठ खड़ा हो पाना मुश्किल नजर आ रहा है. आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की व्यथा-कथा सुनें तो उनकी पीड़ा आपकी नसों में तेजाब भर देती है, पर नेताओं-नौकरशाहों को कुछ नहीं होता.
उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के भिंड जिले की फूफ तहसील में आप प्रवेश करें तो तकरीबन सात ही किलो मीटर दूर है अहेंती गांव. यहां भदौरिया राजपूतों की बहुलता है. गांव में प्रवेश करते ही आपको सेना के कुछ शहीदों की समाधियां नजर आएंगी, पर गांव के अंदर जाएं तो किसानों की आत्महत्या की खौफनाक रुदालियां सुनाई देंगी. पिछले ही साल की तो बात है. 18 अप्रैल से पहले रामसिंह भदौरिया के घर पर सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था. लेकिन 18 अप्रैल को उनके 35 वर्षीय किसान बेटे रक्षपाल ने फांसी लगा ली. ग्राम सेवक के पद से सेवानिवृत्त हुए रामसिंह के पास तकरीबन 30 बीघा खेती है. खेती उनके बेटे रक्षपाल सिंह संभालते थे. उस साल रक्षपाल ने खेत में गेहूं और सरसों की बोवाई की थी. उन्होंने अपनी जमीन के अलावा कुछ और लोगों की ज़मीन बटाई पर ली थी. इस वजह से खेती में उनकी लागत बहुत बढ़ गई थी. रक्षपाल को उस साल अच्छी पैदावार होने की उम्मीद थी, उसी की कमाई से रक्षपाल अपनी बेटी सुनीता की शादी करने की योजना बना रहे थे. लेकिन बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि ने गेहूं और सरसों की फसल बर्बाद कर दी और इसके साथ ही नष्ट कर दिया रक्षपाल का सपना. फसलें खराब हो गईं, बिटिया की शादी नहीं हो पाई, कर्ज का बोझ बढ़ गया और साहूकार का दबाव दम घोंटने लगा. घर में फांके की स्थिति हो गई. पिछले दो साल से खेती का यही हाल था. रक्षपाल को कोई उपाय नहीं सूझा. आखिरकार उसने फांसी लगा कर खुद को मुक्तकर लिया.
लेकिन उसका परिवार त्रासदियों में जकड़ गया. रक्षपाल के पिता बताते हैं कि उनके बेटे की सबसे ज्यादा चिंता कर्ज चुकाने की थी. रक्षपाल की फांसी से टंगी लाश उसकी बिटिया सुनीता ने सबसे पहले देखी जिसकी शादी की घर में गुनधुन चल रही थी. वह अपने पिता को चाय देने के लिए गई थी, लेकिन तब तक सब खत्म हो चुका था. घर पर आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है. बेटे की लाश को कंधा देने की बाप की पीड़ा, पिता रक्षपाल को तलाशती बेटी की आंखें, पत्नी की आंखों से थमती नहीं आंसुओं की धार आपको भी रुलाएगी और व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भर देगी.
रक्षपाल के पिता राम सिंह कहते हैं कि पिछले दो साल से कुदरत का कहर टूट रहा है, लेकिन सरकार की तऱफ से कोई मुआवज़ा नहीं मिला. जिसे मिला भी, तो बेहद कम. खाद-बीज सब कुछ किसान सोसायटी से लेता है. मेरे बेटे ने खेती में हुए नुक़सान की वजह से आत्महत्या की, लेकिन कोई सुनता नहीं है. सरकार और नेताओं को किसानों की चिंता नहीं है. प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष एवं अटेर के विधायक सत्यदेव कटारे बेटे की मौत के बाद गांव तो ज़रूर आए, लेकिन उन्होंने भी हमारे लिए कुछ नहीं किया. सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं आया. तहसीलदार, एसडीएम या किसी भी अधिकारी ने कोई खोज खबर नहीं ली. मीडिया वालों ने भी सहयोग नहीं किया, वे नेताओं के साथ तो आए, लेकिन फिर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा.
गांव वाले स्पष्ट कहते हैं कि जैसे नेता हैं वैसे ही नौकरशाह और वैसे ही मीडिया वाले हैं. किसानों की तकलीफ से किसी का कोई लेना-देना नहीं है. सबके अपने-अपने धंधे हैं और अपनी-अपनी स्वार्थपरक प्राथमिकताएं हैं. किसानों की आत्महत्या पर अगर कारगर विरोध होता तो नौबत ही नहीं आती. प्राकृतिक आपदाओं में किसानों को मिलने वाला मुआवजा नेता, नौकरशाह और दलाल मिल कर खा नहीं जाते. बैंक को औजार बना कर केवल मध्य प्रदेश ही क्या पूरे देशभर के किसानों को लूटा नहीं जा रहा होता. और मजबूर किसानों को आत्महत्या के लिए विवश नहीं होना पड़ता.
इस तरह उजड़ गया सुंदर संसार…
तबाह किसान परिवारों की तो जैसे कतार लगी है. पूरे क्षेत्र के माहौल में ही पीड़ा पसरी हुई महसूस होती है. भिंड जिले के चरी कनावर गांव के किसान मुन्ना सिंह भदौरिया का घर भी अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की वजह से उजड़ गया. मुन्ना सिंह भदौरिया के बड़े बेटे 26 वर्षीय सुंदर सिंह ने अपने खेत के पास ही पेड़ से लटक कर फांसी लगा ली. रात में हुई बारिश और ओलावृष्टि के बाद सुबह फसल की हालत देखने गए सुंदर बर्दाश्त नहीं कर पाए और वहीं पर आत्महत्या कर ली. परिवार में सुंदर के बूढ़े मां-बाप, उसकी पत्नी, तीन बच्चे और छोटा भाई हैं. सुंदर के देहांत के बाद अब परिवार की सारी जिम्मेदारी छोटे भाई अनिल के कंधों पर आ गई है. उनके पास कुल खेती ढाई बीघा की है, ऐसे में परिवार का खर्च चलाकर कर्ज चुकाना संभव नहीं है. परिवार को उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही है. सुंदर सिंह के ताऊ राजा सिंह ने कहा कि सरकारों को किसानों की कोई चिंता नहीं है. शिवराज सिंह की सारी घोषणाएं खोखली हैं. मेरे भतीजे के घर में खाने को नहीं है अब पता नहीं आगे क्या होगा. उसका परिवार कैसे चलेगा. चार साल से इस क्षेत्र में बारिश नहीं होने की वजह से फसल नहीं हो पा रही थी. ऐसे में कई लोग रोजगार की तलाश में दूसरे शहर चले गए. काम की तलाश में गांव से बाहर गए लोगों की जमीन भी खाली पड़ी थी. चार साल बाद बारिश हुई तो खेती के हालात बेहतर हुए. आठवीं पास सुंदर ने चार साल की बदहाली दूर करने के लिए बलकट (किराए) पर पांच हजार रुपये प्रति बीघा की दर से 40 बीघा ज़मीन ली थी. इसके एवज में उन्हें लोगों को दो लाख रुपये देने थे. उसे खुद पर विश्वास था. सुंदर ने खेत में गेहूं और सरसों की बोवनी की.
तीन-चार महीने तक फसल को खाद-पानी-दवा देकर लहलहाता देख वह खुश था. लेकिन कुदरत का कहर फिर किसानों के सिर बरपा. अतिवृष्टि और ओलावृष्टि ने देखते देखते लहलहाती फसलों को बर्बाद कर दिया. इसी बर्बादी ने सुंदर की बलि ले ली. सुंदर के ताऊ यह भी बताते है कि भिंड के इस क्षेत्र में पानी की बहुत समस्या है, नहरें न होने की वजह से फसलों में पानी लगाने के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़ते हैं. खेतों में पानी देने के लिए निजि नलकूप मालिकों को 100 रुपये प्रतिघंटा के हिसाब से पैसे देने पड़ते हैं. हर फसल में दो से तीन बार पानी लगाना पड़ता है. इसके अलावा किसान को ट्रैक्टर से अपने खेत की जुताई के लिए 150 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से पैसे देने होते हैं. एक बीघा सरसों की फसल में एक बोरी डीएपी और एक बोरी यूरिया डालनी पड़ती है. जबकि गेहूं में एक बोरी डीएपी और दो बोरी यूरिया डालनी पड़ती है. एक बोरी यूरिया की सरकारी कीमत 305 रुपये और डीएपी की कीमत 1257 रुपये है. लेकिन यह भी सही समय और सही दाम में किसान को उपलब्ध हो जाए तो गनीमत है. नहीं तो खाद की कालाबाजारी भी किसान की जेब काटने के लिए काफी है. किसान अपनी खेत में खड़ी फसल को अधर में भी नहीं छोड़ सकता. दिन-ब-दिन खेती की लागत बढ़ती जा रही है. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि खेत में खड़ी फसल के खराब होने पर किसानों पर क्या गुजरती है.
सुंदर की आत्महत्या की खबर क्षेत्र में आग की तरह फैल गई थी. पूर्व सासंद गोविंद सिंह ने 10 हजार रुपये परिवार को सहायता स्वरूप दिए. जबकि वर्तमान विधायक और मप्र के नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे 20 हजार रुपये देने का आश्वासन देकर चले गए. भिंड के तत्कालीन कलेक्टर मधुकर आग्नेय के नेतृत्व में एक टीम मौके पर पहुंची थी. किसान की आत्महत्या पर शोक और संवेदना जताने के बजाय कलेक्टर ने कहा कि इतना बड़ा मकान बना है तो कमी किस बात की. कलेक्टर ने पीड़ित परिवार की सहायता करने की कोई बात ही नहीं की. सुंदर सिंह का मकान पुश्तैनी है. पिछली तीन पीढ़ियों से उनका परिवार इसी मकान में रह रहा है. आत्महत्या से क्रोधित ग्रामीणों ने कलेक्टर का विरोध किया और कहा कि आप भ्रष्ट हैं आपको किसान का दर्द समझ में नहीं आता. ग्रामीणों की नाराजगी देखकर कलेक्टर वहां से खिसक लिए. फिर कभी सुंदर के परिवार की ओर मुड़कर भी नहीं देखा.
फांसी चढ़ गई पांच-पांच बेटियों की अभिलाषा
भिंड जिला मुख्यालय से तकरीबन 25 किमी दूर स्थित उमरी गांव निवासी अभिलाख सिंह यादव ने फसल बर्बाद होने के कारण आत्महत्या कर ली. 35 वर्षीय अभिलाख सिंह के पास खुद की तीन बीघा जमीन थी. उन्होंने 10 बीघा जमीन आठ हजार रुपये की दर से बलकट पर ली थी. खेती करने के लिए उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर एक ट्रैक्टर भी फाइनेंस कराया था. अभिलाख यादव के पांच बेटियां व एक बेटा है. अभिलाख अपने भाइयों से अलग एक छोटे से मकान में गुजर बसर कर रहा था. आठ सदस्यीय परिवार में पांच बेटियां ज्योति (18), मोहिनी (16), जूली (14), रोशनी (12), चांदनी (7) वर्ष के अलावा एक डेढ साल का बेटा और पत्नी गुड्डी देवी हैं. बेमौसम बरसात के कारण पिछले साल भी फसल खराब हो गई थी. इस साल भी बैमौसम बरसात और ओलावृष्टि की वजह से खेत में खड़ी गेहूं और सरसों की फसल खराब हो गई, एक दाना खेत से घर तक नहीं पहुंचा. अपने सुसाइड नोट में अभिलाख ने लिखा कि हम अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करेंगे. हम यह सदमा सहन नहीं कर पा रहे हैं. हम अपनी खेती की हालत देखकर अपने खेत पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर रहे हैं. हे, भगवान हमारे बच्चों को देखें.
अभिलाख की पत्नी गुड्डी देवी (32) बताती हैं कि ओलावृष्टि और बरसात के कारण फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई थी. लगातार दो साल से फसल बर्बाद होने के कारण लोगों का कर्जा भी था. उन्हें बड़ी होती बच्चियों की शादी की चिंता भी सता रही थी. बलकट पर भी जमीन ली लेकिन उसमें भी घाटा हो गया, जो कुछ जमापूंजी थी बलकट की खेती में चली गई. इसलिए मेरे पति काफी परेशान थे. उनके देहांत के बाद प्रशासन का कोई आदमी हमारी सुध लेने नहीं आया. इसके आलावा उन्होंने जो बीज सोसायटी से लिया था, वह बीज भी नहीं जमा. सहकारी बैंक और साहूकारों से कर्ज लिया था. अभिलाख के पिता का कहना है कि बेटे के नहीं रहने के बाद उनके कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई है. अब बुढ़ापे में उनसे खेत में काम नहीं होता. ट्रैक्टर का कर्ज भी बाकी है, किसान क्रेडिट कार्ड का कर्ज है. साहूकारों का कर्ज है. यह सब कैसे चुकता होगा. इसके बाद बेटियों की शादी कैसे होगी. बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी समझ में नहीं आता. इनका तो अब भगवान ही मालिक है. सरकार को हमारा कर्ज माफ कर देना चाहिए. तभी हम कुछ कर सकेंगे.
लीलाधर की दर्दनाक जीवन लीला
दमोह ज़िले के सीतानगर निवासी किसान लीलाधर पिछले तीन साल से खेती न हो पाने की वजह से चिंतित रहते थे. उनके पास छह एकड़ भूमि है. उनकी पत्नी दीपरानी बताती हैं, खेती-बाड़ी में लगातार घाटा होने की वजह से उनकी मानसिक स्थिति लगातार बिगड़ती चली गई. बेटी पूजा (20) शादी के लायक हो गई थी. शादी के लिए लड़का देखने जाते, पर मांग ज़्यादा होने की वजह से शादी नहीं हो पा रही थी. 20 नवंबर 2015 को वह खेत में सोयाबीन काटने गए. वहां एक भी दाना नहीं निकला, सब भूसा था. अचानक खेत से घर की ओर निकले. शाम को घर पर कोई नहीं था, उन्हें घर पर पूजा की एक चुन्नी दिखाई दी, उन्होंने उसे रोशनदान से बांधा और फांसी लगा ली. पुलिस को सूचना दी गई. प्रशासन ने कहा कि वह पागल हो गए थे, इसलिए फांसी लगा ली. इस तरह कोई सरकारी मुआवज़ा भी नहीं दिया गया. दीपरानी कहती हैं, अब मुझे घर की सारी ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ रही है. किसी तरह का मुआवज़ा सरकार से नहीं मिला और न कोई दूसरी राहत. स्टेट बैंक का अभी भी 50 हज़ार रुपये का कर्ज है, जिसे इस साल 15 मार्च तक जमा करना है. इसके अलावा 50 हज़ार रुपये साहूकार के देने हैं. उन्होंने बताया कि अब वह खेती देखती हैं. बेटी की शादी और बेटे की पढ़ाई का ज़िम्मा उन्हीं के सिर पर आ गया है. बेटा दमोह में पढ़ रहा है. आठ-नौ बीघा खेती बटाई पर ली है, जिसमें गेहूं और मसूर बोई है. फसल अभी कटकर आई नहीं है, उसी से पहले कर्ज पटाने की चिंता है. कर्ज चुकाएं या पेट भरें, समझ में नहीं आता. किसान की ज़िंदगी में तो भुगतना ही लिखा है, कुछ नहीं रखा है खेती-बाड़ी में. बेटी पूजा से पिता के बारे में पूछते ही उसकी आंखें भर आईं. पूजा को अ़फसोस है कि उसके पिता अब उसे डोली में बैठता नहीं देख पाएंगे.
पूर्व सरपंच भी फांसी लगाने पर विवश हुआ
चरी कनावर गांव के पूर्व सरपंच नरेंद्र सिंह ने भी उसी दरम्यान फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. चार साल से फसल न होने के कारण वह बेहद परेशान थे. उनकी पत्नी रेखा बताती हैं, खेती के लिए कर्ज चुकाने की चिंता के चलते उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. दस साल पहले नरेंद्र गांव के सरपंच बने थे. सरपंच के रूप में उनका कार्यकाल अच्छा था. उन्होंने एमए और एलएलबी की डिग्री हासिल कर रखी थी. उनके पास तीन बीघा ज़मीन है. उन्होंने 10 बीघा ज़मीन बलकट पर ली थी, ताकि घर का खर्च चल सके और बच्चों की पढ़ाई में परेशानी न हो. परिवार में पत्नी रेखा, तीन बेटे, एक बेटी और मां कुंती देवी सहित छह सदस्य थे. पति की मौत के बाद रेखा की भी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है. जिस दिन यह हादसा हुआ, वह अपने मायके में थीं. पिछले साल चैत मास की पूर्णमासी के दिन नरेंद्र खेत पर गए और वहीं उन्होंने मौत को गले लगा लिया. पास के दरुआ गांव से बकरी चराने आए बच्चों ने शाम को उन्हें बबूल के पेड़ पर लटका देखा. उनके पास से हिसाब-किताब की एक पर्ची मिली थी, जो प्रमाण है कि कर्ज के चक्रव्यूह ने उन्हें मौत चुनने पर मजबूर कर दिया.
क्रेडिट कार्ड के कर्ज ने घनश्याम की जान ले ली
सीहोर के आष्टा विकास खंड के सेंवदा गांव निवासी किसान घनश्याम पटेल ने उपज न होने की वजह से आत्महत्या कर ली. चार-पांच साल से खेती में कुछ नहीं हुआ था. किसान क्रेडिट कार्ड से उन्होंने कर्ज लिया था.
खेती-बाड़ी पटरी पर नहीं थी. उन्होंने भूमि विकास बैंक से भी डेयरी के लिए कर्ज लिया और गाय खरीद लाए. लेकिन, फसल खराब होने की वजह से गायों के लिए भूसे का इंतजाम नहीं हो पाया. इस दौरान कुछ गायों की मौत भी हो गई. वह तीन महीने पहले तक बात-बात में आत्महत्या करने का जिक्र करते थे, लेकिन किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. एक दिन सचमुच उन्होंने खेत में आम के पेड़ से लटक कर फांसी लगा ली.
घनश्याम के भाई मुकेश पटेल बताते हैं, इस साल सात एकड़ ज़मीन में 4.2 क्विंटल सोयाबीन हुआ. जो मुआवज़ा मिला, वह बेहद कम है. हमारे यहां पानी की समस्या है. जिसके पास पानी की व्यवस्था है और जो किसान को पानी देता है, उसे पानी के बदले उपज का एक तिहाई हिस्सा देना होता है. इलाके की स़िर्फ 25 प्रतिशत ज़मीन सिंचित है, बाकी 75 प्रतिशत भगवान भरोसे है. एक एकड़ में 22 क्विंटल सोयाबीन होना चाहिए, लेकिन आठ-नौ क्विंटल ही निकल रहा है. किसान की ज़मीन जिस दिन नीलाम होगी, उसकी इज्जत नीलाम हो जाएगी. हमने 33 एकड़ में दो लाख रुपये की लागत से सोयाबीन की खेती की थी, लेकिन कुछ भी पैदा नहीं हुआ. सरकार ने मुझे 22,583 रुपये मुआवज़े के रूप में दिए, जो मेरी कुल लागत का तक़रीबन दस प्रतिशत मात्र है.
बेटे की मौत से खो गईं कम्मोद की उम्मीदें
सीहोर के ही एक गांव चितौड़िया लाखा में पांच साल पहले कम्मोद सिंह के किसान पुत्र दयाराम सिंह मालवीय ने अपने खेत के कुएं में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. उनके पास लगभग चार एकड़ ज़मीन थी. खेती के साथ वह मज़दूरी भी करते थे. दयाराम ने अपने खेत में शरबती गेहूं लगाया था. पानी की कमी के चलते फसल खराब हो गई. इस वजह से वह काफी परेशान थे. इससे पहले सोयाबीन की फसल भी खराब हो गई थी. सोयाबीन की खेती में लगी मज़दूरी भी नहीं निकल पाई थी. सोयाबीन की खेती में दो तिहाई लागत होती है और एक तिहाई बचत, लेकिन मौसम की मार के चलते किसान फसल की लागत भी नहीं निकाल पा रहा है. दयाराम के भाई कृपाल सिंह बताते हैं कि 1300 रुपये में एक बैग डीएपी और 250 रुपये में सुपर फॉस्फेट मिलती है. एक एकड़ में एक बोरी डीएपी और तीन बोरी सुपर फॉस्फेट लग जाती है, कीटनाशक का खर्च अलग. सोयाबीन की सेवा बहुत करनी पड़ती है. हाथ से ही खरपतवार निकालनी होती है. मज़दूर लगाने पड़ते हैं. लेकिन, पानी की कमी या ज़्यादा बारिश के चलते खेती में लगातार ऩुकसान हो रहा है. ऐसे में किसान आत्महत्या न करे, तो क्या करे.
किसान की विधवा का दर्द
आत्महत्या कर चुके किसान की विधवा जब यह कहती हैं कि किसान होना तो पाप हो गया है, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. होशंगाबाद ज़िले की पिपरिया तहसील के कुड़ारी गांव निवासी 40 वर्षीय किसान रणबीर सिंह ने अप्रैल 2015 में बेटी की शादी की थी. उसके बाद से वह कर्जे में थे. किसान क्रेडिट कार्ड पर 1.5 लाख रुपये का कर्ज था. उनके पास छह एकड़ ज़मीन है, जिसमें उन्होंने धान और मूंग लगाई थी. एक बार फसल खराब हो गई, तो उन्होंने दोबारा लगाई, लेकिन वह भी खराब हो गई. उनकी पत्नी बताती हैं कि एक एकड़ में मूंग के 12-14 किलो बीज लगते हैं. पहली बार 70 किलो बीज लगे और दोबारा भी उतने ही. इससे परेशान होकर उनके पति ने सल्फास खा लिया. इलाज के लिए उन्हें होशंगाबाद ले जाया गया, लेकिन उनकी मृत्यु हो गई.
वह कहती हैं, ज़रूर पिछले जन्म में कुछ पाप किए होंगे, जो इस तरह की ज़िंदगी जीनी पड़ रही है. भगवान हमें कुछ भी बनाना, पर अगले जन्म में किसान मत बनाना. आठ अक्टूबर, 2015 को रणबीर की मौत के बाद उनके 17 वर्षीय बेटे राहुल रघुवंशी ने पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के लिए नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी. छोटा भाई अभी पढ़ रहा है. विडंबना यह है कि परिवार के पास ऐसा कोई कागज नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि रणबीर सिंह की मौत ज़हर खाने की वजह से हुई. पुलिस ने भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट परिवार को उपलब्ध नहीं कराई. वह कहती हैं कि अब बेटे को पढ़ाई छोड़कर खेती करनी पड़ रही है. पढ़-लिख जाता तो इंसान बन जाता, लेकिन अब उसे भी ज़िंदगी भर किसानी की मार सहनी पड़ेगी. सरकार ने हमारी कोई मदद नहीं की, कोई सरकारी कर्मचारी हमारी खैर-़खबर लेने तक नहीं आया.
फसल खराब हो गई तो खुद को ही फूंक डाला
पथरिया नगर (वार्ड नंबर 15) निवासी ललन यादव के पास 15 एकड़ ज़मीन है. उन्होंने अपने खेतों में सोयाबीन बोया था. सोयाबीन इतना खराब था कि उन्होंने खेत से काटा ही नहीं. खेती के लिए उन्होंने साहूकारों से क़रीब चार लाख रुपये कर्ज लिया था. किसान क्रेडिट कार्ड से कभी कर्ज नहीं लिया. सात क्विंटल बीज सोसायटी से लेकर लगाए थे, 15 बोरी डीएपी डाली, 10 हज़ार रुपये के कीटनाशक डाले, लेकिन पानी न होने की वजह से फसल नहीं हो पा रही थी. सारा परिवार खेती पर निर्भर है, ललन के तीन बच्चे हैं, बबलू (35), पप्पू (30) और विनीत (28). दो बच्चों की शादी हो चुकी है. तीन साल से फसल खराब होने की वजह से वह छोटे बेटे की शादी नहीं कर पा रहे थे. ललन के भाई रमन बताते हैं कि जिस दिन उन्होंने आत्महत्या की, उस दिन उन्होंने घर से खेत पर जाने की बात कही. खेत पर एक कमरा बनाया था, वह रात में वहीं रहते थे. खेत जाने के लिए घर से शक्कर, चायपत्ती, दूध और बीड़ी ले गए थे. वहां आग और ढिबरी जलाने के लिए मिट्टी का तेल भी लिया. 10 मिनट बाद उनके भाई को भी खेत में जाना था. वह दस मिनट पहले निकले थे. जब उनके भाई खेत में पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि ललन ने अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली थी. पत्नी जनक दुलारी कहती हैं कि उस दिन भी उनके व्यवहार से कुछ अलग नहीं लग रहा था. वह रोज की तरह व्यवहार कर रहे थे, लेकिन उनके मन में क्या चल रहा था, पता नहीं चला. इस क्षेत्र में पानी की बेहद कमी है. जो कुएं और नलकूप हैं, वे सब सूख गए हैं. इस साल भी वर्षा नहीं हुई, इसलिए इस बार भी खेती कमज़ोर है. खेतों में पानी ही नहीं लग पाया. ऐसे में किसान जाएं, तो कहां जाएं. ललन यादव की पत्नी कहती हैं कि सरकार ने कोई मदद नहीं की. घटना के बाद एसडीएम आए थे, पूछताछ करके चले गए. उन्होंने दो बोरी बीज ब्लॉक से भेजे, उसके बाद किसी ने कोई मदद नहीं की. हमें मरने के लिए छोड़ दिया.
सरजू बाई की खुदकुशी दुखद
सीहोर ज़िले की आष्टा तहसील के लासुल्या सूखा गांव निवासिनी 60 वर्षीय सरजू बाई ने आत्महत्या कर ली. उनके पति उमराव सिंह (70) बताते हैं कि पत्नी ही खेती-बाड़ी का सारा काम संभालती थीं. वह बीमार रहते हैं. बेटा पूर्व में गांव का सरपंच रह चुका है. मालवा क्षेत्र में महिलाएं ही खेती-बाड़ी का काम संभालती हैं. सरजू बाई के बेटे एवं पूर्व सरपंच अचल सिंह ने बताया, परिवार के ऊपर 10 लाख रुपये का कर्ज था. हमने 12-15 एकड़ ज़मीन में सोयाबीन की खेती की थी. 10 क्ंविटल बीज लगे थे. लेकिन, जब फसल कटकर घर आई, तो कुल छह बोरी सोयाबीन हाथ लगा. खेती में लगातार घाटा मां से देखा नहीं गया और उन्होंने आत्महत्या कर ली. पहले लगभग 200 क्विंटल उपज हो जाती थी, लेकिन पिछले दो-तीन साल से खेती हुई नहीं. पानी भी नहीं है. गांव की आधी ज़मीन पानी की कमी के चलते खाली पड़ी है, लेकिन किसी ने सुध नहीं ली. पानी की कमी दूर करने के लिए 650 फुट बोर कराया, लेकिन तब भी पानी नहीं निकला. बोर ऐसा है कि लगातार एक घंटे पानी नहीं दे पाता. किसान के लिए खेती करना मजबूरी हो गई है, चाहे घाटा हो या फायदा. जुए की तरह उसे जुटना ही पड़ता है. किसान इस आस में खेती करता जाता है कि कभी तो उसके अच्छे दिन आएंगे, लेकिन उस दिन की आस में उसके जीवन के दिन खत्म हो जाते हैं.
बदहाल अन्नदाता का खुशहाल मुख्यमंत्री
सीहोर ज़िले की आष्टा जनपद पंचायत के गांव पटारिया गोयल में सात नवंबर, 2015 को 38 वर्षीय किसान जीवन सिंह मेवाड़ा ने घर के पास स्थित खजूर के पेड़ पर खुद को फांसी लगा ली. आज उनका परिवार परेशानी में है, लेकिन सरकार की ओर से उसे कोई मदद नहीं मिल रही है. उनकी पत्नी नगीना (35) ने बताया, इस साल पहले ही सोयाबीन की फसल कम थी, लेकिन ज़्यादा बारिश की वजह से वह भी गल गई. ढाई बीघा ज़मीन में केवल 40 किलो उपज हुई. खेती के लिए किसान क्रेडिट कार्ड से 50 हज़ार रुपये का लोन लिया था, इसके अलावा 14 हज़ार रुपये का बिजली बिल बकाया था. पिछले दो साल से बच्चों के स्कूल की फीस बकाया थी, किसी तरह व्यवहार में बच्चे पढ़ रहे थे. स्कूल वालों को फसल आते ही पूरी फीस देने का वादा किया था. भैंस खरीदने के लिए लोन लिया था. इसके अलावा कुछ कर्ज साहूकारों का भी था. लेकिन जब कई दिनों तक हुई बारिश के कारण खेत में फसल गल गई, तो वह अचानक घर से रस्सी लेकर निकले. हमें अंदाज़ा नहीं हुआ कि वह कहां जा रहे हैं. किसी ने नहीं सोचा था कि वह कुछ ऐसा-वैसा कर लेंगे. लेकिन, थोड़ी देर बाद लोगों ने बताया कि उन्होंने खजूर के पेड़ पर फांसी लगा ली है. जीवन के घर में पत्नी नगीना के अलावा बेटी भावना (15), बेटे सुधीर (13) और सुमित (10) सहित कुल चार लोग हैं. कर्ज का बोझ परिवार के सिर पर बना हुआ है. इनमें से कोई भी इतना सक्षम नहीं है, जो परिवार का खर्च चला सके. आज परिवार पाई-पाई के लिए मोहताज है. पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह कहते हैं कि उनके राज में प्रदेश का अन्नदाता खुशहाल है, लेकिन किसानों की बदहाली उस दावे का पर्दाफाश करती है.
जीवन द्वारा आत्महत्या करने के बाद नेताओं का वहां जमघट लग गया, लेकिन पीड़ित परिवार को गांव वालों की कोशिश के बावजूद सरकार की तऱफ से कोई मदद नहीं मिली. स्थानीय विधायक रणजीत सिंह गुणवान भी घटना के बाद आए थे. उन्होंने परिवार को पांच हज़ार रुपये देने की घोषणा करते हुए कहा कि सरकार को इसके लिए लिख रहा हूं. जब मदद के लिए राशि मेरे खाते में आ जाएगी, तो ही दूंगा, नहीं तो नहीं दूंगा. वह राशि पीड़ित परिवार को नहीं ही मिली. स्थानीय निवासी राजन मेवाड़ा बताते हैं, मैं जीवन सिंह की पत्नी को लेकर एसडीएम के पास गया, लेकिन उन्होंने कहा कि हमने रिपोर्ट सरकार के पास भेज दी है. हमारा काम ़खत्म हो गया है, अब जो करना है, सरकार को करना है. यह है प्रशासनिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा!
बेटे की मौत के बाद अब घर में ताला भी नहीं लगता
साल 2015 के भादो में गणेश चतुर्थी के दिन (17 सितंबर) सागर ज़िले के देवरी तहसील के डोंगर सलैया गांव निवासी राजाराम उर्फ रज्जू आदिवासी नामक 30 वर्षीय किसान ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली. गांव से एक किलोमीटर दूर एकांत में रज्जू का घर है, जहां आम तौर पर कोई आता-जाता नहीं है. जब हम उसके उस खपरैल वाले कच्चे घर पहुंचे, तो वहां कोई नहीं था. घर में ताला भी नहीं लगा था. गांव के एक वृद्ध की मदद से हम उसके घर पहुंचे थे. जब हमने उसके पड़ोसी से पूछा, तो उन्होंने बताया कि उसकी पत्नी मायके गई है और मां-बाप खेत में मज़दूरी करने गए हैं. घर में ताला न लगा होने की बात पर पड़ोसी ने कहा कि घर में कुछ है ही नहीं, तो ताला क्यों लगे. घर में एक-दो किलो आटा भी नहीं रहता. हम बुजुर्ग दंपति से मिलने खेत तक जा पहुंचे. वहां राजाराम की मां और पिता चने की कटाई कर रहे थे. पिता बात करने नहीं आए. मां शिवरानी हम तक पहुंचीं. उन्होंने बताया कि उनके पास क़रीब तीन एकड़ ज़मीन है. जब राजाराम ने आत्महत्या की थी, तब हमने खेत में धान और सोयाबीन लगाया था. उसके ऊपर 50 हज़ार रुपये का कर्ज था. सोयाबीन और धान की फसल सूख जाने के कारण वह सदमे में था और कर्ज को लेकर वह काफी दिनों से परेशान था. उसकी आत्महत्या के बाद अब उनका कोई सहारा नहीं है, बुढ़ापे में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ रहा है.
आखिर कितनी मौतें देखेंगी सियारानी!
जिस दिन सारा देश दुर्गा नवमी की चकाचौंध और दशहरे की तैयारियों में डूबा हुआ था, उसी दिन सागर ज़िले के सूरा देही गांव निवासी नरेंद्र लोधी नामक 20 वर्षीय किसान ने आत्महत्या कर ली थी. वह लगातार इस चिंता में था कि उसके खेत में लगी प्याज की पौध सूख जाएगी, तो वह क्या करेगा, क्योंकि नवमी के दिन बिजली विभाग के लोग अचानक नरेंद्र के घर आए थे और बिजली बिल का बकाया 12 हज़ार रुपये देने के लिए दबाव बना रहे थे. बिजली वाले खेत के बोर में लगी मोटर भी निकाल ले गए और कह गए कि चाहे मर जाओ, फांसी लगा लो, अब पैसे न मिलने तक मोटर नहीं मिलेगी. नरेंद्र सदमे में आ गया. नरेंद्र के पिता शालिग्राम का लगभग तीन साल पहले और बड़े भाई यशवंत का दो साल पहले खेत में करंट लगने की वजह से देहांत हो चुका था. मां सियारानी (50), बड़े भाई यशवंत की पत्नी और तीन बेटियों की ज़िम्मेदारी उसके ऊपर थी. जब कर्ज से उबरने का कोई रास्ता नरेंद्र को नहीं दिखा, तो उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. नरेंद्र की मां सियारानी बताती हैं कि उस पर सरकारी बैंकों, रिश्तेदारों और साहूकारों का कुल तीन-चार लाख रुपये का कर्ज था. प्रशासन ने इस मौत पर कहा कि जुए में हारने की वजह से नरेंद्र ने फांसी लगाई. आ़िखरकार ज़िला प्रशासन ने नरेंद्र की मौत का सच स्वीकार किया, पर पीड़ित परिवार को कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली. घर में दो विधवाएं हैं और तीन बेटियां. समाज के सामने बड़ा प्रश्न है कि आ़िखर उनका घर कैसे चले, क्योंकि उनके पास अब कोई सहारा नहीं बचा है.
मां के सामने बहुत रोया था राजकुमार
सागर ज़िले की जैसीनगर तहसील के सरखड़ी गांव निवासी 24 वर्षीय किसान राजकुमार अहिरवार के पास दो एकड़ ज़मीन थी. उसने कर्ज लेकर अपने खेत में सोयाबीन और उड़द की बोवनी की थी, लेकिन पानी की कमी के चलते सारी फसल सूख गई. फसल खराब होने की वजह से वह डिप्रेशन में चला गया. वह घर आकर मां प्रेम बाई के पास रोता रहा. मां ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि कर्ज चुकाने के लिए हम मज़दूरी कर लेंगे, फसल नहीं हुई, तो कोई बात नहीं. लेकिन, उसने कहा कि अब हमारे दिन कभी भी नहीं फिरेंगे. उसने सोचा था 10-12 बोरी सोयाबीन निकल आएगा, तो मंडी में बेचकर कर्ज चुका देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सात अक्टूबर, 2015 को सुबह वह खेत पर चला गया और वहां लगे बेर के पेड़ पर खुद को फांसी लगा ली. गांव में फसल कटाई के लिए बाहर से आए मज़दूरों ने खेत में लगे पेड़ पर राजकुमार का शव लटकता देखा, तो पुलिस को सूचना दी. राजकुमार के बड़े भाई भागचंद ने बताया कि खेत पर कपिलधारा का कुआं खुदा, लेकिन पूरा होने से पहले ही पट गया. सरकार की ओर से एक एकड़ का 15 सौ रुपये मुआवज़ा मिला. पुलिस ने केस दर्ज किया कि राजकुमार ने फसल देखकर खेत में फांसी लगा ली, लेकिन प्रशासन ने इसे किसान की आत्महत्या नहीं माना. तहसीलदार जांच के लिए आए और उन्होंने कहा कि वह पूरी मदद करेंगे, लेकिन आज तक किसी तरह की मदद नहीं मिली.
किस्सू के आज़ाद होने का क़िस्सा
जिस दिन देश अपनी आज़ादी की 69वीं वर्षगांठ बना रहा था, उसी दिन दमोह ज़िले के मड़ियादो गांव निवासी किसान किस्सू अहिरवार (30) ने खेत स्थित कुएं में कूदकर अपनी समस्याओं से आज़ादी पा ली. किस्सू अपने पीछे त्रासद जीवन जीने के लिए अपनी विधवा, तीन बेटियां और दो बेटे छोड़ गए. किस्सू की विधवा उमा देवी बताती हैं, जिस समय यह हादसा हुआ, हमारे खेत में सोयाबीन लगा था. खेती खराब हो गई थी, इस वजह से वह टेंशन में थे. खेतों में पांच बोरी सोयाबीन लगाया था, लेकिन निकला एक भी नहीं. 12 हज़ार रुपये की लागत लगी थी, वह भी नहीं निकली. सात लोगों का परिवार कैसे चलेगा, यही चिंता उन्हें खाए जा रही थी. ऊपर से कर्ज भी था. सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली. कोई खबर लेने तक नहीं आया. आज मुझे बच्चों के साथ मज़दूरी करके पेट पालना पड़ रहा है. मैं और मेरी तीनों बेटियां खेत काट रहे हैं. मुझे 120 और बच्चों को 50-50 रुपये दिन के मिल जाते हैं, किसी तरह खर्च चल रहा है. सरकार को हमारी मदद करनी चाहिए, राहत देनी चाहिए.
मकिसान तो कर्ज मा मरो जा रओ है…
होशंगाबाद ज़िले के ग्राम सेमखेड़ा निवासी 45 वर्षीय खेतिहर मज़दूर अमान सिंह पुत्र प्रहलाद सिंह किरार ने पांच फरवरी, 2015 को खेत के क़रीब स्थित सागौन के पेड़ पर फांसी लगा ली. उनकी पत्नी सुमंतरा बाई बताती हैं, हमारे पास कुल 40 डिसमिल ज़मीन है. पति ने कुछ खेती बटाई पर ली थी. अपनी खेती करने के अलावा वह दूसरों के खेतों में मज़दूरी करते थे. उनके ऊपर लगभग डेढ़ लाख रुपये का कर्ज था. पिछले कुछ सालों से उपज नहीं हो रही थी. मज़दूरी से घर चल रहा था. कर्ज देने वाले लोग आएदिन तगादा करने आते थे, इसलिए उन्हें कर्ज चुकाने की चिंता रहती थी. उनकी बातों से कभी ऐसा नहीं लगा कि वह आत्महत्या जैसा क़दम उठा लेंगे. उस दिन रात में वह बटाई वाले खेत में पानी लगाने गए थे. सुबह उनका शव सागौन के पेड़ पर लटकता मिला. सुमंतरा कहती हैं, किसान तो कर्ज में मरो जा रओ है, जौन के पास जित्ती खेती है, बा के ऊपर उत्तोई कर्ज है. खेती में कछु हो नहीं रओ है, तो किसान करे, तो का करे.
पुलिस ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ही नहीं दी
होशंगाबाद ज़िले के बनखेड़ी ब्लॉक स्थित गांव चांदौन निवासी 45 वर्षीय किसान अशोक शर्मा ने 19 नवंबर, 2014 को अपने खेत में सल्फास खाकर जान दे दी. अशोक शर्मा के पास दो एकड़ ज़मीन थी. तक़रीबन 60 हज़ार रुपये का बैंक कर्ज था. इसके अलावा उन्होंने साहूकारों से भी कर्ज ले रखा था. जिस समय यह घटना हुई, खेत में सोयाबीन लगा था और बारिश की वजह से खेती खराब हो गई थी. उनके बेटे हेमंत शर्मा बताते हैं, घटना के पांच-छह दिन पहले वह घर से बिना बताए कहीं चले गए थे. उस वक्त वह परेशान थे. कहां गए थे, पता नहीं चला. लेकिन, उस दिन उन्होंने मुझे फोन करके खेत पर बुलाया. वहां जाकर देखा, तो उन्होंने ज़हर खा लिया था. उनकी सांसें चल रही थीं. मैं उन्हें बनखेड़ी अस्पताल ले गया, फिर चांदौन ले गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. आज तक हमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक नहीं मिली, जिसके आधार पर हम सरकार से मुआवज़ा मांग सकें.
मौत से तो बच गए ज़िंदगी से कैसे बचेंगे!
दमोह ज़िले के सुम्मेर गांव निवासी 32 वर्षीय महेंद्र पटेल ने पांच साल पहले फसल बर्बाद होने की वजह से ज़हर खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी. उन्होंने बताया कि उस साल पाला पड़ने की वजह से फसल खराब हो गई थी. मेरे हिस्से में पांच एकड़ ज़मीन थी. मैं नौवीं पास हूं, मेरे पास खेती करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. मैंने खेत में मसूर बोई थी. सारी फसल खराब देखकर मेरा दिमाग़ खराब हो गया. मेरे ऊपर साहूकार का ढाई लाख रुपये का कर्ज था. 80-90 हज़ार रुपये बैंक कर्ज था. फसल खराब हो गई थी, कोई मुआवजा नहीं मिला था. साहूकार आएदिन तगादा करने चले आते थे. इसलिए मुझे इन झंझटों से निकलने का एक ही रास्ता नज़र आया और मैंने सोयाबीन में डाली जाने वाली कीटनाशक दवा पी ली. लोग मुझे अस्पताल ले गए और मैं बच गया. बाद में जांच के लिए भोपाल से एक टीम आई, तहसीलदार भी जांच के लिए आए. तहसीलदार ने पांच हज़ार रुपये का चेक दिया और कहा कि अपना इलाज कराओ. अब भी किसानों की वही स्थिति बनी हुई है. पहले तीन साल सूखा पड़ा, तो फसल नहीं हुई, पिछले साल अतिवृष्टि के चलते फसल खराब हो गई. ऐसे में किसान क्या करे? सरकार का रवैया किसानों के प्रति बेहद खराब है. राहत के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है. किसान अंदर से खोखला हो गया है.
इसी तरह सागर ज़िले की जैसीनगर तहसील के शोभापुर गांव निवासी बब्बू अहिरवार ने पिछले साल कीटनाशक पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की. वह खुशकिस्मत थे कि बच गए. बब्बू कहते हैं, मेरे ऊपर डेढ़ लाख रुपये का कर्ज था. फसलें नष्ट हो चुकी थीं. मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था. मैंने ठेके पर 10 एकड़ ज़मीन ली थी, जिस पर सोयाबीन लगाया था. बारिश की वजह से पूरी फसल खराब हो गई. कटाई कराने पर कुछ भी नहीं निकला. मैंने अपनी तकलीफ से मुक्ति पाने के लिए सोयाबीन में डाला जाने वाला कीटनाशक पी लिया, लेकिन बच गया.
धोखे की बुनियाद पर कृषि कर्मण पुरस्कार : किसानों के प्रति अकर्मण्य सरकार
मध्य प्रदेश सरकार फसलों की बर्बादी को किसानों की आत्महत्या का एकमात्र कारण नहीं मानती. गेहूं उत्पादन में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार हथियाने वाली सरकार को यह बताना ज़रूरी है कि फसलें बर्बाद हुईं, तो अनाज का रिकॉर्ड उत्पादन कैसे हुआ? सरकार इस सवाल से बचना चाहती है.
वन उपज के साथ ही कृषि मध्य प्रदेश का प्रमुख व्यवसाय है. पिछले चार साल से लगातार प्रदेश में अनियमित वर्षा हुई. कभी अचानक बाढ़ के हालात बने, तो कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ गया. दोनों ही स्थितियों में किसानों को भारी ऩुकसान उठाना पड़ा. मालवा के अलावा भोपाल, रायसेन, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, हरदा, खंडवा आदि ज़िलों में सूखे की स्थिति पैदा हुई, गेहूं एवं दलहन की फसलों को भारी नुक़सान हुआ. कहने को तो सरकार सिंचाई सुविधाओं को उपलब्ध कराने में रिकॉर्ड बनाने का दावा कर रही है, परंतु न तो किसानों को समय पर पर्याप्त बिजली मिल पाती है और न नहरों या अन्य माध्यम से पानी. यही कारण है कि वर्षा कम होने पर फसलें सूख जाती हैं.
सूखा या असमय ओलावृष्टि से लगातार फसलों को ऩुकसान होता आ रहा है. इसके चलते साल की दोनों फसलें प्रभावित हो जाती हैं. बीज, सिंचाई, खाद, बिजली के भारी-भरकम बिल चुकाने के लिए जब पैसे की आवश्यकता होती है, तो कर्ज लेना पड़ता है. मध्य प्रदेश सरकार किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण देने का दावा भी कर रही है, परंतु वास्तविकता यह है कि राज्य का प्रत्येक किसान कर्जदार है. उस पर राज्य के सहकारी बैंकों का ही नहीं, सरकारी और निजी क्षेत्र के बैंकों का कर्ज भी चढ़ा हुआ है. इस सच्चाई को सरकार लगातार छिपाने का प्रयास करती है, परंतु यही किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण बन रही है. पिछले पांच सालों के दौरान यदि सरकार को तीन साल लगातार कृषि कर्मण पुरस्कार मिला तो दूसरी ओर लगभग पांच हज़ार किसानों ने आत्महत्या कर ली.
हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजधानी भोपाल के समीप प्रधानमंत्री किसान बीमा योजना का लोकार्पण किया. इस बीमा योजना के पहले भी किसान बीमा योजना थी, परंतु किसानों से इस योजना के अंतर्गत प्रीमियम तो अधिक ले लिया जाता है, उसके बदले जब फसल खराब होती है, तो बीमा राशि का भुगतान देखकर शर्मिंदगी का अनुभव होता है. इस साल किसानों की पूरी फसल चौपट हुई, लेकिन बीमा राशि प्रति हेक्टेयर 126 रुपये, तो किसी को 256 रुपये दी गई. कई किसानों को तो 12 रुपये तक बीमा राशि का भुगतान किया गया. दूसरी ओर जब बैंक अधिकारी-कर्मचारी उनसे वसूली करने पहुंचते हैं, तो प्रदेश सरकार के अधिकारी उन्हें रोकने के बजाय उनके साथ कुर्की करने पहुंच जाते हैं.
मध्य प्रदेश में अधिकांश किसानों ने कर्ज में डूबने के कारण आत्महत्या की. प्रमुख कारण बढ़ता कर्ज और घटता उत्पादन रहा, लेकिन पुलिस को सरकार की ओर से स्पष्ट निर्देश हैं कि इन्हें मुख्य कारण के रूप में कतई न दिखाया जाए. बीमारी, परिवार की समस्या या अन्य कोई ऐसा कारण आत्महत्या के पीछे दिखाया जाए, जिससे यह सिद्ध न हो सके कि फसल खराब होने या कर्ज वसूली के लिए प्रताड़ित करने के कारण किसान ने आत्महत्या की. प्रदेश सरकार के कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन कहते हैं कि किसान अपनी करनी के कारण मर रहे हैं. इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है. वह दावा करते हैं कि प्रदेश में कोई भी किसान फसल खराब होने के कारण नहीं मरा. मध्य प्रदेश सरकार किसानों की भरपूर सहायता कर रही है.
मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अरुण यादव कहते हैं कि यदि मुख्यमंत्री किसान पुत्र हैं, तो फिर प्रदेश में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा क्यों बढ़ रहा है? किसानों को राहत स्वरूप कुछ भी नहीं मिल पाया. इतना भी नहीं कि वे अगली फसल के लिए बीज खरीद सकें. बाकी व्यवस्थाएं तो दूर की बात हैं. यदि सरकार किसानों को पैसा बांट रही होती, तो हर दूसरे-तीसरे दिन किसान आत्महत्या क्यों कर रहे होते? प्रदेश किसान कांग्रेस के अध्यक्ष दिनेश गुर्जर का कहना है कि महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश में सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले तीन सालों के दौरान तीन हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है, जिसका रिकॉर्ड पुलिस के पास है, लेकिन सरकार छिपा रही है. राज्य के अधिकांश क्षेत्रों में किसानों को आज भी राहत नहीं मिल सकी है. फसल बीमा के नाम पर बीमा कंपनियों ने घोटाला किया.
किसानों के हज़ारों करोड़ रुपये का गोलमाल हुआ. इसकी राज्य और केंद्र सरकार को जांच करानी चाहिए. किसानों से कर्ज वसूली स्थगित करने का ढोंग किया जा रहा है. सही बात तो यह है कि हर तीसरे दिन किसानों से कर्ज वसूलने के लिए बैंकों के कर्मचारी पहुंच रहे हैं. इनमें राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सहकारी बैंक भी शामिल हैं. गुर्जर कहते हैं कि अस्सी प्रतिशत किसानों को सरकार के जीरो प्रतिशत ब्याज के कर्जका लाभ नहीं मिल पा रहा है. यह भी एक छलावा है, क्योंकि या तो किसान समय पर कर्ज नहीं चुका पाता है या फिर समय पर किस्त नहीं दे पाता है, जो इसकी प्रमुख शर्तें हैं. हर तीसरे दिन आत्महत्या करते किसानों को सरकार नहीं रोक पा रही है, क्योंकि उसके पास कोई ठोस नीति नहीं है.
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