नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा कर लिया है. कहा जाता है कि किसी भी सरकार के पहले वर्ष में उसके काम करने की दशा और दिशा निर्धारित हो जाती है. नवगठित सरकार के ऊपर सबसे पहले अपने चुनावी वादे पूरे करने और चुनावी घोषणा-पत्र को अमलीजामा पहनाने का दबाव होता है, क्योंकि सरकार से लोगों की कई तरह की आशाएं जुड़ी होती हैं. एक कहावत है कि पहला सुख निरोगी काया. मोदी सरकार भले ही नई स्वास्थ्य नीति की दिशा में कार्य कर रही है, लेकिन केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए धन आवंटन में कमी से उसकी कथनी-करनी का भेद दिखाई दे जाता है. ढाई दशकों बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के गठन के बाद आशा की गई थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र को सरकार अपनी प्राथमिकता में रखेगी और उसमें सुधार के लिए आवश्यक एवं कड़े क़दम उठाएगी, लेकिन सरकार ने स्वास्थ्य बजट में कटौती करके सही संदेश नहीं दिया.
इस साल के बजट में स्वास्थ्य और उससे जुड़े क्षेत्रों में बड़ी कटौती की गई है. सरकार ने सबसे पहले आईसीडीएस जैसी योजना के बजट में बड़ी कटौती की है, जो कुपोषण से लड़ने की दिशा में काम कर रही है. हालांकि, इसे लेकर कई तरह की नकारात्मक बातें भी समय-समय पर आती रही हैं, कई विश्लेषक इस योजना को सफेद हाथी तक कह चुके हैं, लेकिन इस योजना के बजट में कटौती का सीधा असर शिशुओं, किशोरों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ा है. यह योजना कई दशकों से चल रही है, लेकिन देश में कुपोषण के मामलों में कमी नहीं आ पाई है. इसलिए किसी वैकल्पिक योजना की शुरुआत की बात सरकार ने नहीं की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए वर्ष 2015 में निर्धारित शताब्दी विकास लक्ष्यों को हासिल करने के भारत के प्रयास बेहद निराशाजनक रहे हैं. निर्धारित दस लक्ष्यों में से वह महज चार ही हासिल कर पाया है और बाकी के सबंध में हुई प्रगति भी न के बराबर है. हो सकता है कि सरकार आईसीडीएस की जगह कोई और योजना लाना चाहती हो, लेकिन इस तरह के कोई संकेत सरकार द्वारा अब तक पेश किए गए दो बजटों में तो दिखाई नहीं दिए हैं.
भारत के लिए मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित कमी न आ पाना अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है. भले ही इसमें अब तक जो भी कमी है, बावजूद उसके अब भी वह सहारा के अफ्रीकी देशों के समकक्ष खड़ा दिखता है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के चलते मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज़्यादा है. दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे खराब हालत में है. सरकार की नीतियां अगले चार सालों में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने की होनी चाहिए. इस उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है, लेकिन मोदी सरकार ने पिछले एक साल में इस दिशा में कोई बड़े क़दम नहीं उठाए हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं की रूपरेखा में बदलाव की आशा की जा रही थी, जिस पर शहरी एवं ग्रामीण ग़रीब पूरी तरह निर्भर हैं.
संसदीय कमेटी ने स्वास्थ्य क्षेत्र और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में बजटीय आवंटन पर चिंता जाहिर की है. माना जा रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को दिए जाने वाले टैक्स शेयर को 42 प्रतिशत करने की वजह से केंद्र सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्य बजट की ज़िम्मेदारी राज्यों के ऊपर डाल दी है. यदि ऐसा हुआ है, तो ग़रीब और पिछड़े राज्यों में स्वास्थ्य सुविधाओं पर सीधा असर पड़ेगा. स्वास्थ्य क्षेत्र में केंद्रीय मद में कमी का सीधा असर सरकार के नेशनल हेल्थ एश्योरेंस मिशन पर पड़ेगा, जिसमें लोगों को मुफ्त दवाएं देने और जांच किए जाने का प्रावधान है. यदि सरकार स्वास्थ्य बजट में आवश्यक इज़ाफा नहीं करती है, तो प्रधानमंत्री के चुनावी वादे स़िर्फ वादे बनकर रह जाएंगे.
भारत के लिए मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित कमी न आ पाना अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है. भले ही इसमें अब तक जो भी कमी है, बावजूद उसके अब भी वह सहारा के अफ्रीकी देशों के समकक्ष खड़ा दिखता है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के चलते मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज़्यादा है. दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे खराब हालत में है. सरकार की नीतियां अगले चार सालों में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने की होनी चाहिए.
स्वास्थ्य के लिए जीडीपी का अंश खर्च करने के मामले में भारत दुनिया के अग्रणी देशों से बहुत पीछे है. कुल स्वास्थ्य बजट का 40 प्रतिशत रिसर्च, मैन पॉवर के विकास, नियंत्रण और महंगी दवाएं थोक में खरीदने के लिए खर्च किया जाएगा. सरकार ने नई स्वास्थ्य नीति के तहत 58 नए मेडिकल कॉलेज खोलने की योजना बनाई है. अगले पांच वर्षों में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की तर्ज पर 14 नए हॉस्पिटल खोले जाएंगे. नए मेडिकल कॉलेज खुलने के बाद देश में सरकारी एवं निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या 600 के आसपास पहुंच जाएगी. देश में फिलहाल 398 मेडिकल कॉलेज एमबीबीएस की डिग्री देते हैं, जिनमें 52,105 सीटें हैं. यह संख्या भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए अपर्याप्त है. दक्षिण भारत के राज्यों में जनसंख्या कम है और मेडिकल कॉलेजों की संख्या ज़्यादा है, लेकिन उत्तर भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या जनसंख्या के लिहाज से बेहद कम है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में 32 और बिहार में केवल 12 मेडिकल कॉलेज हैं. लेकिन, सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इन नए संस्थानों के लिए गुणवत्ता वाला वर्क फोर्स तैयार करने की है, ताकि नए संस्थान एम्स-दिल्ली के बराबर गुणवत्ता से कार्य कर सकें.
मोदी सरकार के पास अपने वादे पूरे करने के लिए चार साल का समय है. फिलहाल सरकार जीडीपी का 1.2 प्रतिशत स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च कर रही है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले साल दिसंबर में एक विजन डॉक्यूमेंट पेश किया था, जिसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का 2.5 प्रतिशत खर्च करने की बात कही गई है, लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा नहीं बताई गई है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का पांच प्रतिशत खर्च करने की बात कहता है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सरकार के बजट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि सरकार ने स्वास्थ्य बजट में महज दो प्रतिशत की वृद्धि की है, जो कि महंगाई की दर (इन्फ्लेशन) की तुलना में कम है. ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र में जो भी बढ़ोत्तरी हुई है, उससे कुछ होने वाला नहीं है. वर्तमान में देश की तक़रीबन 17 प्रतिशत आबादी ही स्वास्थ्य बीमा के दायरे में आती है. सरकार ने इसमें बढ़ोत्तरी करने के लिए स्वास्थ्य बीमा के लिए करों में छूट की सीमा बढ़ा दी है. इसका असर भी आने वाले दिनों में दिखाई देगा. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के रूप में डॉक्टर हर्षवर्धन ने तंबाकू उत्पादों पर रोक लगाने के लिए कई तरह के क़दम उठाए थे, जिनमें तंबाकू उत्पादों पर पिक्टोरियल वार्निंग के आकार में बढ़ोत्तरी और सिगरेट की खुदरा बिक्री पर रोक जैसे निर्णय शामिल थे. ऐसे में कहा गया कि तंबाकू लॉबी की वजह से डॉक्टर हर्षवर्धन को स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाकर विज्ञान मंत्रालय में भेज दिया गया.
भारतीय जनता पार्टी ने साल 2014 में लोकसभा चुनाव के पहले जारी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में देश के स्वास्थ्य को सर्वोच्च वरीयता देते हुए कहा था कि उसकी सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को प्रत्येक नागरिक के लिए सुलभ बनाएगी और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करेगी. भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह भी कहा था कि यूपीए सरकार की योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) अपने उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रही है. इस योजना में मूलभूत बदलाव किए जाने की आवश्यकता है. भाजपा स्वास्थ्य सेवाओं को सबसे उच्च वरीयता देती है. इसलिए सरकार नई स्वास्थ्य नीति लेकर आएगी. सरकार ने अपने घोषणा-पत्र के अनुरूप पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के विकास पर ज़ोर देते हुए आयुष (आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी और सिद्ध) के लिए अलग से 1,214 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. आयुष पिछले साल तक स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत एक विभाग था, लेकिन मोदी सरकार ने इसे एक अलग मंत्रालय बना दिया. सरकार उपचार की इन प्राचीन पद्धतियों को जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित कर रही है. भारत सरकार की पहल के बाद ही संयुक्त राष्ट्र ने इसी साल 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है.
देश को स्वस्थ और स्वच्छ बनाने की नीयत से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की. दो अक्टूबर, 2014 को इस अभियान की विधिवत शुरुआत की गई. प्रधानमंत्री के झाड़ू उठाने के बाद मंत्रियों एवं अधिकारियों के बीच झाड़ू पकड़ कर फोटो खिचाने की जैसे होड़ मच गई. लेकिन सात महीने बाद भी यह अभियान परवान नहीं चढ़ सका है. नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तर्ज पर यह अभियान आगे बढ़ रहा है. जिन विशिष्ट व्यक्तियों को प्रधानमंत्री ने इस अभियान के लिए नामांकित किया था वे भी फोटो खिचवा कर और खानापूर्ति करके आगे बढ़ गए. अब किसी को इस अभियान की सुध नहीं है. स़िर्फ नरेंद्र मोदी के विदेश दौरे में दिए गए भाषणों में स्वच्छ भारत अभियान नज़र आता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा है.
भारत सरकार ने बच्चों के टीकाकरण के लिए मिशन इंद्रधनुष नामक एक नई योजना की शुरुआत की है, जिसके अंतर्गत बच्चों की जान को ़खतरे में डालने वाली सात बीमारियों डिप्थीरिया, काली खांसी, टिटनेस, पोलियो, टीबी, खसरा और हैपेटाइटिस-बी आदि से बचाने के लिए टीकाकरण किया जाएगा. इस मिशन का उद्देश्य वर्ष 2020 तक उन सभी बच्चों को अपने दायरे में लाना है, जिनका उक्त सात टीका निवारणीय रोगों के विरुद्ध या तो टीकाकरण हुआ नहीं है अथवा आंशिक टीकाकरण हुआ है. साल 2013 तक देश के केवल 65 प्रतिशत बच्चों को टीकाकरण के दायरे में लाया जा सका है. इसके साथ ही सरकारी अस्पतालों में 50 जीवन रक्षक दवाएं मुफ्त में देने की शुरुआत की गई है. सरकारी अस्पतालों में इन दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है.सरकार ने बेहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए बहुत से क़दम उठाए हैं, लेकिन उनका ज़मीन पर असर कम दिखाई देता है. नई स्वास्थ्य नीति आने के बाद ही स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रति सरकार की मंशा जाहिर हो जाएगी. मोदी सरकार का पहला साल कायाकल्प की तैयारी में बीत गया. ये तैयारियां किस तरह और कब परवान चढेंगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा. ऐसे में नए मिलेनियम डेवलपमेंट गोल भी पूरे करने की चुनौती भारत के सामने होगी, जिनके लिए 2015 से लेकर 2030 तक का समय निर्धारित किया गया है. इसकी झलक मोदी सरकार के अगले चार सालों में दिखाई देगी.
कटौती दर कटौती
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद साल 2014-15 के बजट में स्वास्थ्य बजट में 27 ़फीसद का इजाफा किया था. लेकिन अक्टूबर आते-आते उसमें 20 प्रतिशत की कटौती भी कर दी. सरकार ने एड्स कार्यक्रमों के लिए बजटीय आवंटन में 30 प्रतिशत की कटौती की थी. जबकि संयुक्तराष्ट्र के साल 2013 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा एड्स के मरीज भारत में हैं. इसके बाद साल 2015-16 के बजट में साल 2014-15 के मुख्य स्वास्थ्य बजट की तुलना में महज दो प्रतिशत का इज़ाफा किया, जो कि महंगाई में वृद्धि की तुलना में काफी कम है.
http://www.chauthiduniya.com/2015/06/creating-healthy-india.html
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